मंथन. राजनीति सभी धर्मों का मूल है। राजनीति का अर्थ है- समाज को विकसित, सुशिक्षित करना, जिससे वह उन लोगों के हाथों में महफूज रहे, जो अपने-आपको समाज-हित के सुदृढ़ बंधनों में बांधकर जनता की सेवा करें। राजनीति के गणित में दो और दो पांच की कहावत खूब चलती है। महात्मा बुद्ध ने कहा है कि सत्ता का दुरुपयोग अनादि काल से चलता आ रहा है। इंसान की इसी फितरत ने राजनीति की मनोदशा को बिगाड़कर रख दिया है। हमेशा से जगद्गुरु रहा भारत राजनीति की उच्चतम अवस्था का अग्रणी देश रहा है। सुकरात, प्लेटो, माक्र्स आदि ने यहां से प्रेरणा लेकर अपने देशों के अव्यवस्थित राजतंत्र को समुन्नत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अर्थशास्त्र के जनक कौटिल्य, महर्षि अरविंद, महात्मा गांधी, विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण तक ने राजनीतिक शुचिता तथा ‘नेता नहीं, सेवक’ की भूमिका को लोकतंत्र की संजीवनी कहा है। आज जरूरत है ऐसे सृजनशील नेताओं की, जो समाज की धारा और किनारा, दोनों को मजबूत और महफूज रख सकें।
मुगल काल में विघटनकारी शक्तियों को रोकने के लिए ही तुलसीदास ने आम बोलचाल की भाषा में रामचरितमानस लिखकर ऐसे रामराज्य की परिकल्पना इसीलिए की, जिससे नेतृत्व की क्षमता और एकता का नवीनीकरण हो सके। परहित सरिस धर्म नहिं भाई, परपीडम सम नहिं अधमाई नेतृत्वकर्ता के विशिष्ट गुणों का ही द्योतक है। महात्मा गांधी ने अंतिम सांस तक जिस राम और रामराज्य की परिकल्पना के साथ इस भारत को जोड़ा था, वह मात्र जीडीपी ग्रोथ वाला भारत नहीं था। गांधी के भारत में समानता, सहजता और समन्वय का अनूठा पुट है, सत्य और अहिंसा इसके आवश्यक अंग-अवयव हैं। बुद्ध ने सत्ता के दुरुपयोग की बात मानव स्वभाव के परीक्षण के आधार पर कही है। आज की स्थिति भी ठीक ऐसी ही है। आजाद भारत में लालबहादुर शास्त्री जीवन भर अपना मकान नहीं बनवा सके, रफू किए हुए कोट में विदेश यात्रा कर आते थे। ढेर सारे आदर्शों वाले उसी भारत में आज भ्रष्टाचार, घोटाले, राजनीतिक चरित्र-हनन की घटनाएं दर्जनों की संख्या में विभिन्न जांच एजेंसियों की फाइलों में दबी पड़ी हैं।
आज की राजनीति या तो वंशवाद की भेंट चढ़ चुकी है या आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों की या फिर वह व्यावसायिक घरानों के लिए हरा-भरा चरागाह बनकर रह गई है। ऐसी विषम परिस्थिति में समाज के पथ-प्रदर्शक कहे जाने वाले संतों को आगे आकर एक बार फिर ‘चाणक्य’ की भूमिका का निर्वहन करना चाहिए, तभी राष्ट्र समर्थ और सशक्त बनेगा। विभिन्न धर्म, संप्रदाय, जाति के लोग किसी न किसी रूप में संतों-धर्मगुरुओं से सीधे जुड़े रहते हैं। सामाजिक एकता और परस्पर स्नेह-सौहार्द के लिए सेतु का निर्माण संत और धर्मगुरु ही कर सकते हैं। गंगा प्रदूषण जैसे मुद्दे को वर्तमान लोकसभा चुनाव में राजनीतिक पार्टियों ने कुछ स्थान दिया है, जो स्वागत योग्य है। अब यह जिम्मेदारी हम सबकी है कि इस पहल का गला न घोंटने दिया जाए। इस पर साथ मिलकर योजना बनाने और सभी धर्मस्थलों, आश्रमों, मठों-मंदिरों और अखाड़ों द्वारा समाज के सभी वर्गों को जोड़कर उनके क्रियान्वयन की आज बड़ी जरूरत है।
चाणक्य ने विश्व विजेता सिकंदर की भारत विजय को रोकने के लिए जिस तरह चंद्रगुप्त को गढ़ा था, जिस तरह मगध राजतंत्र के भ्रष्टाचार का शमन किया था; ठीक उसी तरह भारतीय गणराज्य की आज की युवा पीढ़ी और भारत के संत समाज को एक बार फिर एकजुट होकर बुराइयों और भ्रष्टाचार पर जोरदार व सार्थक प्रहार करना होगा। विडंबना यह है कि आज न तो हम चाणक्य जैसी संकल्प-शक्ति और तपोबल अर्जित करना चाहते हैं और न ही चंद्रगुप्त जैसी धैर्य क्षमता व पात्रता। मानव जीवन की सार्थकता तभी है, जब उसका व्यक्तित्व उसे जन्म देने तथा पालने व पोसने वाले समाज के हित में लगे। जंगल के शेर को कभी कोई राजतिलक नहीं करता, न ही उसे राज्य-दीक्षा देता है, वह तो स्वयं अपने लिए और अपने ही बल से ‘मृगेंद्र’ बनता है। बीते कुछ दशकों में हमारे देश की जनता ने कई सरकारें बनाईं और अनेक नेता गढ़े, मगर ‘सृजनशील’ उनमें से एक भी बनकर, गढ़कर नहीं निकल पाया। नेतृत्व की क्षमता और कुछ कर दिखाने की ललक से लबरेज व्यक्तित्व ही जर्जर सड़कों, बदहाल स्वास्थ्य सेवाओं, बदतर होती शिक्षा व्यवस्था को ठीक कर सकता है, ऐसा व्यक्तित्व ही खुदकशी करने वाले किसानों और युवा-मन के रोष को कम कर पाएगा।
प्रसिद्ध शायर बशीर बद्र की दो पंक्तियां हैं- आंखों-आंखों में रहे कोई घर न हो, ख्वाब जैसा अब किसी का मुकद्दर न हो। यह आज के भारत का कड़वा सच है। आज के नेता छोटी-छोटी लालसाओं और कामनाओं में उलझे रहते हैं, जिससे समाज के हित और विकास कुछ लोगों के स्वार्थ की बलि चढ़ जाते हैं। महात्मा गांधी ने कहा है कि साधन और साध्य की पवित्रता ही सार्थक परिणाम देती है। बापू के इस भाव कथन को आज सचमुच जीने की जरूरत है। राजनीति की वर्तमान दुर्दशा के लिए गांवों का विघटन भी एक महत्वपूर्ण कारक है। भारत जैसे विविधता भरे देश में गांव ही सामाजिकता की जन्मभूमि हैं। गांवों में भिन्न-भिन्न जातियों और संप्रदायों के लोगों के बीच घरेलू संबंध बड़े मजबूत होते हैं। आज भी मिट्टी की सोंधी खुशबू के साथ ग्राम्य अंचलों के निवासी एक-दूसरे को ताऊ-ताई, काका-काकी, बाबा-दादी जैसे संबोधनों से बुलाते हैं। यह सामाजिकता शहरी कंक्रीट के जंगलों में कहीं खो जाती है।
महानगरों में मात्र नेता बन जाने की महत्वाकांक्षा ही बची है, तभी आज लालबहादुर शास्त्री, जयप्रकाश नारायण, महेंद्र सिंह टिकैत और चरण सिंह जैसे नेताओं का अभाव होता जा रहा है। सामाजिक हितों की चिंता न रखना असाधारण अपराध है। समाज की उपेक्षा ही समाज से शत्रुता है। आज राजशक्ति हथियाने वाले लोगों की बाढ़-सी आ गई है। भ्रामक लोक-लुभावन वादे करने वाले ऐसे लोग इन महानगरों की विलासिता की ही देन हैं। कहते हैं कि शेर की सवारी जितनी भव्य होती है, उसके खतरे भी उतने ही बड़े होते हैं। वर्तमान राजनीति की दशा और दिशा भी कुछ ऐसी ही हो गई है। आइए, हम सब मिलकर एक ऐसे भय-मुक्त, भूख-मुक्त और भ्रष्टाचार-मुक्त भारत का पुनर्निर्माण करें, जिसमें राजनीति के उन नौसिखियों की कोई जगह न हो, जो हाथ में तलवार आ जाने पर मनमर्जी से उसे चलाते हुए सबका नुकसान किया करते हैं। हम सबकी जिम्मेदारी और भागीदारी ही दुनिया के सबसे विशालतम लोकतंत्र को इंद्र के वज्र के समान मजबूत और सुगठित करेगी।